BY-डा. वरिंदर भाटिया
भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका अपने इतिहास के सबसे भीषण आर्थिक संकट से गुजर रहा है। वहां पेट्रोल, डीजल जैसा बेहद अहम ईंधन खत्म हो चुका है। बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। जरूरी चीजों के आयात के लिए सरकार के पास पैसे नहीं बचे हैं। इससे लगभग सभी चीजों के दाम लगातार चढ़ते जा रहे हैं। कई लोगों की तो पहुंच से बाहर ही हो चुके हैं। धीरे-धीरे सब ठप हो रहा है। यहां का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। इसी के साथ कर्ज के बोझ से तले इस देश के दिवालिया घोषित होने का खतरा भी पैदा हो गया है। आखिर ऐसा क्या हुआ रावण के देश में, जो श्रीलंका ऐसी मुसीबत में फंसा? जानकारों के मुताबिक श्रीलंका के आर्थिक संकट में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की बेहद अहम भूमिका मानी जा रही है। श्रीलंका ने 1978 में राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनाई। तभी से यह विवादों में है। खास तौर पर सत्ताधारी दल द्वारा सार्वजनिक संपत्ति के दुरुपयोग और मनमाने फैसलों के कारण।
राष्ट्रपति के शासन तंत्र पर नियंत्रण का कोई इंतजाम नहीं है। जो था, उसे भी राष्ट्रपति को कानून से ऊपर मानने वाले कानूनी प्रावधानों के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया। बताया जाता है कि श्रीलंका सरकार ने रेडियो लाइसेंसिंग में भी भारी हेराफेरी की है। रेडियो और टेलीविजन प्रसारण के काम आने वाली फ्रिक्वेंसी के लाइसेंस के लिए आम तौर पर सभी देश ऊंची कीमत वसूलते हैं। इससे सरकारी खजाना भरते हैं। साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि ये लाइसेंस लेने वाले राष्ट्रीय नीति के दायरे में ही अपने चैनलों का संचालन करेंगे। लेकिन श्रीलंका में इस काम में जबरदस्त धांधली हुई है। जैसे चंद्रिका कुमार तुंगा जब राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त हुईं तो एक लाइसेंस उन्हें ही आवंटित हो गया। उन्होंने उसे एक कंपनी को महज 50 लाख डॉलर में बेच दिया। इसी तरह 2005 में महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद 3 लाइसेंस जारी किए। इनमें एक बौद्ध भिक्षु को मिला और बाकी 2 राजनीतिक दलों को। इन्होंने राजपक्षे की जीत सुनिश्चित करने में भूमिका निभाई थी। फिर आगे बौद्ध भिक्षु ने अपना लाइसेंस किसी कंपनी को 4 करोड़ डॉलर में बेच दिया। इन लाइसेंसों का पैसा भी सरकारी कोष के बजाय निजी खातों में गया।
‘कश्मीर फाइल्स’ व भारतीय सिनेमा
श्रीलंका की संसद के सदस्य राष्ट्रपति और उनकी नीतियों का आम तौर पर किसी तरह से प्रतिरोध नहीं करते। बताया जाता है कि बदले में उन्हें राष्ट्रपति शासन से शराब, रेत, खनन आदि के लाइसेंस वगैरह मामूली दामों पर उपलब्ध कराए जाते हैं। इन लाइसेंसों के जरिए या तो सांसद खुद कारोबारी बन बैठते हैं या फिर उन्हें ऊंचे दामों पर किसी कंपनी को बेचकर अपने बैंक खातों में बड़ी रकम रकम जमा करते हैं। इस तरह दोतरफा भ्रष्टाचार जारी रहता है। श्रीलंका में सरकारी तामझाम पर भारी रकम खर्च होती है। मतलब राष्ट्रपति से लेकर मंत्रियों, नेताओं, अफसरों की गाडि़यां, बंगले, फोन, सुरक्षा आदि पर इतनी रकम खर्च होती है जितनी संभवतः ब्रिटेन जैसे विकसित देश में भी खर्च नहीं की जाती। इससे देश के सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता रहा है। लेकिन राष्ट्रपति शासन ने इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। ‘श्रीलंका गार्जियन’ अखबार के मुताबिक देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद ली जा रही है। आर्थिक सहयोग पैकेज लाने की कोशिश की जा रही है। भारत और चीन से भी मदद मांगी जा रही है। जब तक श्रीलंका की सरकार आर्थिक नीतियों और तंत्र को कसती नहीं, दुरुस्त नहीं करती, इस पर संशय बना रहेगा कि श्रीलंका आर्थिक संकट से बाहर आ पाएगा या नहीं। श्रीलंका की करेंसी डॉलर की तुलना में करीब आधी रह गई है। दूध, अंडा, चावल, डीजल और पेट्रोल, मिर्च जैसी तमाम चीजों के दाम कई गुना बढ़ गए हैं।
ईंधन की किल्लत की वजह से बसें बंद कर दी गई हैं। गैस नहीं मिल रही, इसलिए लोग खाना भी नहीं बना पा रहे। श्रीलंका में ईंधन की कमी की वजह से ज्यादातर बसें बंद कर दी गई हैं। लगभग ढाई करोड़ लोगों के घरों में बिजली आपूर्ति ठप हो गई है। कारखाने और पॉवर प्लांट बंद हो चुके हैं। यहां लोगों का कहना है कि देश में 1948 के बाद से यानी 74 साल के बाद सबसे बुरे हालात हैं। श्रीलंका की जनता इसके लिए यहां की सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है। मीडिया रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि श्रीलंका के पास देश चलाने के लिए पैसे भी नहीं हैं। कोरोना महामारी, ईंधन की कमी और आसमान छूती महंगाई की वजह से देश संकट से जूझ रहा है। सरकारी खजाना खाली हो चुका है। श्रीलंका को आने वाले कुछ महीनों में घरेलू और विदेशी कर्ज चुकाने के लिए लगभग साढ़े सात अरब डॉलर की जरूरत है। श्रीलंका की जनता का इसके बारे में क्या मानना है, यह जानना जरूरी है। ऐसा कहा जा रहा है कि जनता का इस तरह प्रदर्शन करना, सड़कों पर उतरना न्यायसंगत है क्योंकि उन पर इस आर्थिक संकट से आने वाला बोझ और कठिनाइयां बेहद असहनीय होती जा रही हैं और इन समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान नज़र नहीं आ रहा है।
श्रीलंका की सरकार के उस दावे को ख़ारिज किया जा रहा है जिसमें कहा गया कि ये विरोध प्रदर्शन राजनीतिक पार्टियों से प्रेरित हैं। ऐसा लगता है कि ये प्रदर्शन लोगों का ही है, न कि पार्टियों की राजनीति से प्रेरित है। काफी हद तक प्रदर्शन कर रहे लोगों के बर्ताव आम जनता के बर्ताव ही हैं जो सरकार से मिली नाउम्मीदी और सरकार के अपने कामों में विफल होने के फलस्वरूप आ रहे हैं। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि वो सभी लोग जो अब तक सत्ता में रहे या विपक्ष में रहे, उन्होंने देश के लोगों को विफल किया है, वे लोग अपने कार्यकाल में जनता के प्रति कर्त्तव्यों के निर्वहन में विफल हुए हैं, उन्हें अपना पद छोड़ देना चाहिए। ऐसे में वर्तमान समय में लोगों के गुस्से का समाधान वे लोग नहीं दे सकते जो संसद में बैठे हैं क्योंकि जनता का गुस्सा उन्हीं लोगों से है। श्रीलंका ने वैश्विक वित्तीय संस्थानों के बजाय अपने पड़ोसियों से सहायता जुटाना बेहतर समझा है। श्रीलंका की सरकार बीते कुछ महीनों में महंगाई पर लगाम लगाने में असर्मथ रही है। बढ़ते बजट घाटे के बीच श्रीलंका ने कम ब्याज दर बनाए रखने की कोशिश में ढेर सारी मुद्रा छापी है। ये सब उस दौरान हो रहा था जब देश में विदेशी मुद्रा के तेजी से घटने की ख़बरें आ रही थीं। यह ठीक आर्थिक कदम न था। कमजोर विदेशी मुद्रा भंडार के कारण कुछ चीजों का आयात भी बंद कर दिया गया था।
एक श्रीलंकाई अख़बार के मुताबिक देश के प्रमुख विपक्षी गठबंधन समाजी जन बलावेगाया ने पिछले साल 29 नवंबर को कहा था कि श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार इस वक्त अपने ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर यानी 1.2 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया है। इसी बीच पता चला है कि श्रीलंका के केंद्रीय बैंक सेंट्रल बैंक ऑफ श्रीलंका ने अपने पास रखे आधे से अधिक गोल्ड रिज़र्व को बेच दिया है। दि संडे टाइम्स ने 8 जनवरी को अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि गोल्ड रिज़र्व का 54.1 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मुद्रा भंडार को मज़बूती देने के लिए इस्तेमाल हो चुका है। ऊपर किया गया विश्लेषण बताता है कि श्रीलंका का वर्तमान संकट वहां के नेता लोगों के भ्रष्टाचार, आर्थिक कुप्रबंधन, चीन की कुटिल चाल और अलोकतांत्रिक सरकार का नतीजा है। आज वहां की जनता को बेकसूर होने के बावजूद दुःख सहना पड़ रहा है। वहां की जनता हमें संकटमोचक के रूप में देख रही है। वैसे भी भारत का श्रीलंका से ऐतिहासिक और आध्यात्मिक रूप से पुराना और करीबी रिश्ता है। ऐसे में श्री राम का देश भारत रावण के देश श्रीलंका के इस संकट में वहां की जनता को बिना देरी से त्राहि से मुक्ति दिलाए तो ठीक लगता है।
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