BY-सीता आर्य
शिक्षा किसी भी समाज के बौद्धिक विकास की पहली कड़ी होती है. कोई भी देश अपने नागरिकों को शिक्षित किये बिना सभ्य और विकसित नहीं बना सकता है. आज विज्ञान में जो भी तरक्की हुई है, उसके पीछे कड़ी शिक्षा का ही परिणाम है. इसीलिए कोई भी देश अपनी नीतियों को बनाते समय शिक्षा को विशेष प्राथमिकता देता है. हमारे देश में भी आज़ादी के बाद से शिक्षा को ही केंद्र बिंदु रखा गया है. शहरी क्षेत्रों के बच्चों की तरह गांव के बच्चों को भी शिक्षा में समान अवसर मिले, इसके लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा की नीतियां लागू की गयी ताकि आर्थिक रूप से पिछड़े और समाज के अंतिम पायदान पर खड़े परिवार के बच्चे को भी शिक्षित होने का अवसर प्राप्त हो सके.
लेकिन सवाल यह उठता है कि आज़ादी के 75 सालों बाद भी और शिक्षा की दर्जनों नीतियां बनाने के बावजूद हम शत प्रतिशत शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सके हैं? आखिर क्या कारण है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का स्तर इतना खराब है? देश के कुछ गिने चुने राज्यों में उत्तराखंड भी एक है, जहां के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की हालत दयनीय है. पहाड़ों से घिरे इस राज्य के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहां या तो स्कूल की सुविधा ही नहीं है अथवा है भी तो नाममात्र की. जिसके कारण आज भी इन क्षेत्रों के बच्चे शिक्षा की लौ से वंचित हैं. तकनीक के इस दौर में आज भी पहाड़ी क्षेत्र के बच्चे बहुत पीछे खड़े नजर आते हैं. हम बात कर रहे है उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक से करीब 25 किमी की दूरी पर बसा मिकिला गांव की, जहां स्कूल और शिक्षा के नाम पर कुछ भी नज़र नही आता है.
छोटी सी आबादी वाले इस गांव में शिक्षा के नाम पर केवल खानापूर्ति ही नज़र आती है. गांव में स्कूल की ऐसी भी सुविधा नहीं है कि बच्चे प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त कर सकें. यही कारण है कि यहां की अधिकतर आबादी अशिक्षित है. शिक्षा विभाग भी यहां गुणवत्तापूर्ण स्कूल स्थापित करने और बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने में गंभीर नज़र नहीं आता है. हालांकि विज्ञान के इस युग में ग्रामीण भी शिक्षा के महत्त्व को समझते हैं और वह अपने बच्चे को शिक्षित देखना चाहते हैं, वह चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी तरह अशिक्षित होकर मज़दूर न बनें बल्कि पढ़ लिख कर अफसर बने. लेकिन वह इसके लिए किससे फ़रियाद करें? किसके पास जाकर अपनी तकलीफ बताएं? उनकी आर्थिक स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है कि वह अपना एक दिन का भी काम छोड़कर 30 किमी दूर पैसा खर्च करके जिलाधिकारी के कार्यालय जाएं और उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराएं.
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बेहतर स्कूल नहीं होने का सबसे बड़ा खामियाज़ा लड़कियों को भुगतना पड़ता है. जिनकी न केवल शिक्षा प्रभावित होती है बल्कि उनका बौद्धिक विकास भी रुक जाता है. अच्छी शिक्षा की खातिर माता पिता बेटों को शहर भेज कर स्कूल में दाखिला दिला देते हैं, ताकि उसका भविष्य बन जाए. लेकिन घर की लड़कियों के बारे में कोई नहीं सोचता है, उसे अपने भाई के उज्जवल भविष्य की खातिर अपने शिक्षा की कुर्बानी देनी पड़ती है, क्योंकि माता पिता की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती है कि वह लड़कों के साथ साथ लड़कियों की शिक्षा भी वहन कर सकें. जबकि एक शिक्षित लड़की समाज और आने वाले वंश के लिए कितनी लाभकारी सिद्ध हो सकती है, इसका महत्त्व न तो उन्हें है और न ही समाज को. समाज भी आर्थिक रूप से कमज़ोर माता पिता को लड़कियों की शिक्षा पर पैसे खर्च करने की जगह उसकी शादी के लिए दहेज़ का सामान जमा करने को प्रोत्साहित करता है, जो वास्तविकता से बिल्कुल विपरीत है. जबकि गांव में कई ऐसी लड़कियां हैं जो पढ़ने लिखने में काफी तेज़ हैं, यदि उन्हें अवसर मिले तो वह अपनी प्रतिभा का उच्च प्रदर्शन कर गांव का नाम रौशन कर सकती हैं.
अच्छे स्कूल की कमी केवल मिकिला गांव की समस्या नहीं है बल्कि इसके आसपास के कई गांव ऐसे हैं जहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का घोर अभाव है. अधिकतर गांवों में नाममात्र के स्कूल हैं और अगर हैं भी तो उसमें शिक्षकों की संख्या इतनी कम है कि उनका अधिकतर समय ऑफिस के कामों को पूरा करने और फाइलों को भरने में ही गुज़र जाता है, क्योंकि सरकार को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता है कि किसी स्कूल में शिक्षकों के कितने पद खाली हैं? लेकिन उसे इस बात की फ़िक्र ज़रूर होती है कि सरकारी आदेशों से संबंधित सभी फाइलों को शिक्षकों ने सही से भर कर समय पर जमा कराया है या नहीं? शिक्षा विभाग किसी शिक्षक से यह प्रश्न नहीं करता है कि जब वह इतने सारे फाइल भरे हैं तो उन्हें बच्चों को पढ़ाने की फुर्सत कब और कैसे मिली होगी? यही कारण है कि शिक्षक भी अपनी नौकरी बचाने की खातिर संबंधित विषय को पढ़ाने से ज़्यादा फाइलों को अपडेट करना प्राथमिकता देते हैं.
ऐसे में वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों जो आर्थिक रूप से बेहद गरीब परिवार से आते हैं, उन्हें नुकसान होता है. वह शिक्षा की लौ से दूर हो जाते हैं. जिससे उनका मानसिक विकास रुक जाता है और नशे जैसी गलत लत की ओर बढ़ने लगते हैं. उत्तराखंड के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों के युवा नशे का सेवन करते हुए पाए जाते हैं. शिक्षा की कमी के कारण उन्हें कोई अच्छी नौकरी भी नहीं मिलती है और फिर वह मज़दूरी करने पर मजबूर हो जाते हैं. दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के होटलों और ढाबों में अधिकतर इसी राज्य के युवा काम करते नज़र आ जायेंगे. यदि उन्हें यथोचित शिक्षा मिलती तो वह भी अच्छी नौकरी और ऊंचे पदों पर होते. वहीं दूसरी ओर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी के कारण लड़कियों का भी मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है. उनकी कम उम्र में ही शादी करा दी जाती है. जिससे उनका शारीरिक विकास भी प्रभावित होता है. अच्छी शिक्षा के कारण ही कई अभिभावक गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं. ताकि उन्हें अधिक मज़दूरी भी मिले और उनके बच्चों को शिक्षा भी प्राप्त हो सके. बागेश्वर ज़िले के कई गांव ऐसे हैं जहां से लोग पलायन कर चुके हैं और अब गांव में नाममात्र की आबादी रह गई है.
शिक्षा के क्षेत्र के लिए प्रकाशित होने वाली अधिकांश रिपोर्ट उत्तराखंड के स्कूलों की बदहाल स्थिति की ओर इशारा करती हैं. दिसम्बर 2021 में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद की ओर से जारी की गयी फाउंडेशन लिटरेसी एंड न्यूमरेसी इंडेक्स की रिपोर्ट में उत्तराखंड के स्कूली शिक्षा की बदहाली को उजागर किया है, यह रिपोर्ट बताती है कि राज्य में मात्र 8 फीसदी ही प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध हैं जबकि राज्य के बहुत से ऐसे गांव हैं जहां स्कूल ही नहीं है, जिसकी वजह से बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो पाता है और वह जुआ, शराब, नशे जैसी गलत संगत में पड़ जाते हैं और आपका जीवन नरक बना लेते है, अगर गाँव में स्कूल होगा तो वह पढ़ने जाएंगे जिससे उनका मानसिक विकास होगा और अपने भविष्य के बारे में सोचेंगे. शहरों में शिक्षा प्राप्त करने के कई अवसर हैं, लेकिन गांव में एक स्कूल भी नहीं होने का दर्द पीढ़ियों को प्रभावित करता है.
(लेखिका मिकिला, कपकोट उत्तराखंड की रहने वाली है)
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